Home KKN Special इलाहाबाद क्यों गये थे चन्द्रशेखर आजाद

इलाहाबाद क्यों गये थे चन्द्रशेखर आजाद

चन्द्रशेखर आजाद

KKN न्यूज ब्यूरो। बात वर्ष 1920 की है। अंग्रेजो के खिलाफ सड़क पर खुलेआम प्रदर्शन कर रहे एक 14 साल उम्र के किशोर को पुलिस अधिकारी 15 कोड़े मार कर छोड़ देने का आदेश देते हैं। दरअसल, यही से शुरू होता है असली कहानी। कोड़े मारने से पहले अंग्रेज का एक अधिकारी उस किशोर से पूछता है- तुम्हारा नाम क्या है? जवाब मिला- आजाद…। तुम्हारे बाप का नाम क्या है? जवाब मिला- स्वतंत्रता…। अंग्रेज अधिकारी ने पूछा- घर का पता बताओं? उस किशोर ने बिना डरे कहा- जेल…। जवाब सुन कर अंग्रेज अधिकारी चौक गये थे। बात यहीं नही रुकी। बल्कि, जब सिपाहियों ने कोड़े मारने शुरू किए। तब प्रत्येक कोड़े पर वह चिल्लाने की जगह। भारत माता की जय… बोलने लगा।

मुझे छोड़ कर गलती कर रहे हो

कहतें है कि कोड़े मारने का यह सिलसिला तबतक चला, जबतक वह किशोर बेहोश नहीं हो गया। कुछ घंटो के बाद जब किशोर को होश आया। तब अंग्रेज अधिकारी ने उसको रिहा कर दिया। अब उस किशोर की हिम्मत देखिए। जाने से पहले वह अंग्रेज अधिकारी के सामने खड़ा होकर मुस्कुराने लगा। जब अधिकारी ने मुस्कुराने की वजह पूछी। तो उसका जवाब था- मुझे छोड़ कर बड़ी गलती कर रहे हो…। कयोंकि, आज के बाद तुम लोग मुझे कभी पकड़ नही पाओगे। अंग्रेज अधिकारी ने किशोर की कही बातों को गंभीरता से नही लिया। पर, यह बात आगे चल कर बाकई सच साबित हो गया और आगे चल कर वह किशोर कभी अंग्रेजो की पकड़ में नही आया।

देश के लिए दिया प्राणो की आहूति

दरअसल, यही वो लड़का था। जो, आगे चल कर चन्द्रशेखर आजाद के नाम से जाना गया। चन्द्रशेखर आजाद एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने आजादी की खातिर युवा अवस्था में अपने प्राणो की आहूति दे दी। वे अक्सर कहा करते थे- “मैं आजाद हूँ, आजाद रहूँगा और आजाद ही मरूंगा”। उनकी यह कथन भी सच साबित हो गया। मात्र 24 साल की उम्र में अंग्रेजो से लड़ते हुए वे खुद की गोली से शहीद हो गए। पर, जिन्दा रहते हुए कभी पकड़े नहीं गए। कहतें है कि यह वो उम्र है, जब युवा पीढ़ी अपनी जिंदगी के सपने देखती है। उसको पूरा करने की हसरत लिए कोशिश करती है। ठीक उसी उम्र में देश की खातिर निस्वार्थ भाव से शहीद होना। मामुली घटना नही है।

क्यों चुनी क्रांति की कठिन राह

कहतें है कि असयोग आंदोलन में प्रदर्शन करते हुए नन्हे चन्द्रशेखर को अंग्रेजो से कोड़े की मार पड़ी थी। उसी आंदोलन को सन 1922 में महात्मा गांधी ने अचानक स्थगित कर दिया था। इस घटना का चन्द्रशेखर आजाद के बाल मन पर गहरा असर पड़ा और चन्द्रशेखर आजाद ने महात्मा गांधी से अलग होकर क्रान्तिकारी विचारधारा की ओर मुड़ गये। उन्होंने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ से जुड़ कर आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। उनदिनो महान क्रांतिकारी पंडित राम प्रसाद बिस्मिल इसके सबसे बड़े नेता हुआ करते थे। इसके अतिरिक्त शचीन्द्रनाथ सन्याल और योगेशचन्द्र चटर्जी सरीखे क्रांतिकारी इस संगठन के सदस्य हुआ करते थे।

काकोरी के बाद आजाद को मिला कमान

काकोरी कांड के आरोप में वर्ष 1927 में जब इनमें से कई क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। तब, चन्द्रशेखर आजाद ने इसका कमान अपने हाथो में ले लिया। इसके बाद चन्द्रशेखर आजाद ने पहली बार उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारियों को एक जुट करके ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन’ का गठन किया था। बाद में भगत सिंह भी इस संगठन से जुडे और अंग्रेज अधिकारी सांण्डर्स की हत्या करके लाहौर में हुई लाला लाजपत राय के मौत का बदला लिया था। कहतें है कि दिल्ली के असेम्बली बम काण्ड के बाद यह संगठन काफी चर्चा में आ गया था।

काकोरी की है दिलचस्प कहानी

काकोरी कांड की दिलचस्प कहानी है। कहतें है कि 9 अगस्त 1925 को काकोरी में ट्रेन रोक कर सरकारी खजाना लूटा गया था। किंतु, इससे पहले शाहजहां पुर में चन्द्रशेखर आजाद ने मीटिंग बुलायी थीं। अशफाक उल्ला खां ने इसका विरोध किया था। बावजूद इसके धन जुटाने के लिए काकोरी कांड को अंजाम दिया गया। हालांकि, क्रांतिकारियों को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेज अधिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद को नहीं पकड़ सके। पर, काकोरी के आरोपी पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाक उल्ला खां और ठाकुर रौशन सिंह को अंग्रेजो ने 19 दिसम्बर 1927 को फांसी पर चढ़ा दिया था। इसके मात्र दो रोज पहले ही राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को अंग्रेजो ने फांसी पर लटका दिया था।

साधु के भेष में कांतिकारियों को एकजुट किया

लाख कोशिशों के बाद भी चन्द्रशेखर आजाद अंग्रेजो के हाथ नही आ रहे थे। कहतें हैं कि काकोरी काण्ड के बाद चन्द्रशेखर आजाद ने साधु का भेष धारण कर लिया था। साधु के बन कर चन्द्रशेखर आजाद गाजीपुर पहुच गए और वहां एक मठ में रह कर यही से आंदोलन का संचालन करने लगे थे। अपने चार बहादुर साथी के फांसी और 16 को कैद की सजा होने के बाद भी चन्द्रशेखर आजाद का हौसला कमजोर नहीं हुआ था। उन्होंने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र करके 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा करके अंग्रेजो को चकमा दे दिया। इसी सभा में यह तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारियों को एकजुट होना चाहिए और ऐसा हुआ भी। इसी सभा में चन्द्रशेखर आज़ाद को कमाण्डर इन चीफ बना दिया गया था।

जब पुलिस के सामने से निकल गये थे आजाद

इसके बाद की एक घटना बड़ा दिलचस्प है। ब्रिटिश पुलिस से बचने के लिए चन्द्रशेखर अपने एक मित्र के घर छिपे हुए थे। ठीक उसी समय अचानक किसी की तलाश में पुलिस वहां पहुंच गई। मित्र की पत्नी ने चन्द्रशेखर आजाद को एक धोती और अंगरखा पहना कर सिर में साफा बांध दिया और टोकड़ी में अनाज भर कर खुद उनकी पत्नी बन गई। समान बेचने का बहाना बना पुलिस के सामने ही चन्द्रशेखर आजाद को अपने साथ लेकर वह महिला चली गई। थोड़ी दूर पहुंचकर चन्द्रशेखर आजाद ने अनाज से भरा टोकड़ी एक मंदिर की सीढ़ियों पर रख दिया और मित्र की पत्नी को धन्यवाद देकर वहां से चले गए। पुलिस को बाद में पता चला कि टोकड़ी लेकर जाने वाला वह कोई मामुली किसान नहीं, बल्कि, चन्द्रशेखर आजाद थे।

ओरछा के जंगल को बनाया ठिकाना

अध्ययन करने से पता चला कि अंग्रेजो को चकमा देने के लिए चंद्रशेखर आजाद ने झांसी से करीब पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा के जंगल को अपना ठिकाना बना लिया था। पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से इसी जंगल में रहते हुए उन्होंने अपने साथियों के साथ निशानेबाजी का अभ्यास किया था। कहतें है कि चन्द्रशेखर आजाद का  निशाना अचूक था। उन्हों गाड़ी चलाना भी आता था। अब एक घटना पर गौर करीए। क्रांतिकारियों के मन में लाला लाजपत राय के मौत का बदला लेने का जुनून सवार हो चुका था। तय हुआ कि जे.पी. सांडर्स को मार देना है।

अचूक निशाना लगा कर बचाई भगत की जान

योजना के तहत 17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और राजगुरु ने लाहौर के पुलिस सुपरिटेडेंट के कार्यालय के समीप घात लगा दिया था। संध्या का समय था। जैसे ही जे.पी. सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल से बाहर निकला। सबसे पहले राजगुरू ने गोली चला दी। पहली गोली सांडर्स के सिर में लगी और वह मोटर साइकिल से नीचे गिर गया। इसके बाद भगत सिंह आगे बढ़े और दनादन चार गोलियां उसके जिस्म में उतार कर भागने लगे। इस बीच सांडर्स के बॉडीगार्ड ने भगत सिंह को निशाने पर ले लिया। हालांकि, वह फायर करता। इससे पहले ही चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपने अचूक निशाना से बॉडीगार्ड का काम तमाम कर दिया। इसके बाद क्रांतिकारियों ने पोस्टर लगा कर लाला लाजपत राय के मौत का बदला पूरा होने का ऐलान कर दिया। इससे अंग्रेज बौखला गए थे।

दुर्घटना की वजह से नही हुआ जेल ब्रेक

कहतें है कि भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फांसी रुकवाने के लिए चन्द्रशेखर आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गांधीजी के पास भेजा था। किंतु, गांधीजी इसके लिए तैयार नही हुए। इसके बाद चन्द्रशेखर आजाद ने भगत सिंह को छुराने के लिए जेल ब्रेक करने की योजना बानाई। इसके लिए तैयारी शुरू हो गई। किंतु, अंतिम चरण में बम बनाने के दौरान भूलबस एक विस्फोट हो गया और इसमें भगवती चरण वोहरा की मौत हो गई। इस घटना के बाद क्रांतिकारियों के जेल ब्रेक की योजना पर पानी फिर गया।

 कॉग्रेस नेता का मदद से इनकार

इधर, चन्द्रशेखर आजाद अपने साथियों को फांसी से हर हाल में बचाना चाहते थें। इसके लिए उन्होंने भेष बदल कर उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल पहुंच गए और जेल में बंद गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी के परामर्श पर चन्द्रशेखर आजाद इलाहाबाद चले गये। यहां 20 फरवरी को उन्होंने आनन्द भवन जाकर जवाहरलाल नेहरू से भेंट की। आजाद चाहते थे कि पण्डित जी अपने साथ गांधीजी को लेकर लॉर्ड इरविन से मिले और तीनो की फांसी को उम्रकैद में बदलने का अनुरोध करें। किंतु, जवाहरलाल नेहरू इसके लिए तैयार नहीं हुए।

पुलिस से लड़ते हुए खुद को मारी गोली

निराश होकर चन्द्रशेखर आजाद इधर उधर भटक रहे थे। इसी दौरान 27 फरबरी को चन्द्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क चले गए। वहां उनकी मुलाकात अपने एक पुराने मित्र सुखदेव राज से हो गई। दोनो मिल कर मंत्रणा कर ही रहे थे। तभी सी.आई.डी. का एस.पी. नॉट बाबर जीप से वहां अचानक पहुंच गया। उसके पीछे कर्नलगंज थाने की पुरी पुलिस टीम थी। दोनो ओर से जोरदार फायरिंग शुरू हो गया। चन्द्रशेखर आजाद अकेले ही पुलिस टीम से घंटो लड़ते रहे। किंतु, बाद में गोली कम पड़ गयी और अंतिम गोली उन्होंने स्वयं को मार कर शहीद हो गये।

समीप जाने की अंग्रेजो में नही थी हिम्मत

कहतें है चन्द्रशेखर आजाद के शहीद होने के बाद भी अंग्रेज अधिकारी उनके करीब पहुंचने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। घंटो बाद पुलिस ने उनके पैर में गोली मारी और कोई हरकत नहीं होने पर पुलिस के अधिकारी उनके करीब पहुंचने की साहस जुटा सके। इसके बाद पुलिस ने गुपचुप तरीके से चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार करने की तैयारी शुरू कर दी। हालांकि, थोड़ी देर में ही यह खबर इलाहाबाद (प्रयागराज) में फैलने लगी। लोगों की भारी भीड़ अलफ्रेड पार्क में उमड़ गई।

अंग्रेजो के खिलाफ फुट पड़ा गुस्सा

जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे थे। लोग उस जगह की मिट्टी को पवित्र मान कर अपने घरो में ले जाने लगे। शहर में अंग्रेजो के खिलाफ जब‍रदस्त आक्रोश भड़कने लगा। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों प‍र हमले शुरू हो गये। लोग बड़ी संख्या में सडकों पर आ गये और अंग्रेजो के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गया। गौर करने वाली बात ये है कि यह सभी कुछ स्वत: स्फुर्द था। कोई नेतृत्वकर्ता नहीं था।

अंतिम दर्शन को पहुंची थी कमला नेहरू

इधर, आज़ाद के बलिदान की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू तक पहुंच गई। कमला नेहरू ने तत्काल ही कई वरिष्ट कॉग्रेसी नेताओं को इसकी सूचना दिया। पर, किसी ने भी इस घटना को गंभीरता से नहीं लिया। इसके बाद कमला नेहरू ने वहां मौजूद पुरुषोत्तम दास टंडन को साथ लेकर इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर चली गई। यही पर अंग्रेजो ने आजाद का दाह संस्कार किया था। अगले रोज युवाओं की टोली ने आजाद की चिता से अस्थियां चुन कर एक जुलूस निकाला। कहतें है कि इस जुलूस में पूरा इलाहाबाद इखट्ठा हो गया। इलाहाबाद की सभी मुख्य सडकों पर जाम लग गया।

घटना से कॉग्रेस ने किया किनारा

जुलूस के बाद एक सभा हुई। इस सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित किया था।  इस सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया था। इस घटना से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चन्द्रशेखर आजाद का व्यक्तित्व कम उम्र में ही कितना विराट रुप धारण कर चुका था। पर, उस समय कॉग्रेस के कोई भी बड़ा नेता इस घटना को बड़ी घटना मानने को तैयार नही था और कॉग्रेस ने चन्द्रशेखर आजाद की मौत पर शोक संवेदना देना भी उचित नही समझा।

झाबुआ के आदिवासियों का था गहरा असर

चन्द्रशेखर आजाद का आज जन्म 23 जुलाई 1906 ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी तथा माता का नाम जगरानी देवी था। चन्द्रशेखर आजाद की शुरुआती पढ़ाई मध्यप्रदेश के झाबुआ जिला में हुआ था। किंतु, बहुत ही कम उम्र में संस्कृत पढ़ने के लिए उनको वाराणसी की संस्कृत विद्यापीठ में दाखिल करा दिया गया। झाबुआ में रहते हुए आजाद का बचपन आदिवासी इलाकों में बीता था। यही पर उन्होंने अपने भील बालकों के साथ धनुष बाण चलाना सीख लिया था। इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है।

भील बालको से सीखा धनुष चलाना

कहतें है कि उनदिनो भारी अकाल पड़ा था। उन्हीं दिनो आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर मध्य प्रदेश चले गए। वहां अलीराज पुर रियासत में नौकरी करने लगे और वहीं समीप के भंबरा गांव में बस गये। यहीं पर बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। यह आदिवासी बाहुल्य इलाका था। नतीजा, बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाना सीख लिया था।

बनारस में हुआ था क्रांति का बीजारोपण

बनारस में रहते हुए चन्द्रशेखर आजाद का संपर्क क्रांतिकारी मनमंथ नाथ गुप्ता और प्रणवेश चटर्जी से हो गया। इसके बाद चन्द्रशेखर आजाद ने क्रान्तिकारी दल ज्वाइन करके भारत माता की आजादी के लिए अपने प्राणो की आहूति दे दी। कहतें है कि जैसा नाम वैसा काम। यानी चन्द्रशेखर आजाद जब तक जिन्दा रहे आजाद ही रहे। लाख कोशिशो के बाद भी अंग्रेज उनको गिरफ्तार नही कर सका।


Discover more from

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Ad

NO COMMENTS

Leave a ReplyCancel reply

Exit mobile version