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फवाद खान की फिल्म ‘अबीर गुलाल’ पर बैन, प्रकाश राज बोले – “फिल्मों पर रोक लोकतंत्र के खिलाफ है”

Prakash Raj Slams Ban on Fawad Khan’s 'Abeer Gulal': “Let Audiences Decide, Not Governments”

KKN गुरुग्राम डेस्क | पाकिस्तानी अभिनेता फवाद खान की बहुप्रतीक्षित बॉलीवुड फिल्म ‘अबीर गुलाल’ पर केंद्र सरकार द्वारा रिलीज से पहले ही रोक लगा दी गई है। यह फिल्म 9 मई 2025 को रिलीज़ होने वाली थी, लेकिन जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद इसे “संवेदनशील समय” का हवाला देते हुए स्थगित कर दिया गया।

इस कदम को लेकर सोशल मीडिया पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं। जहां कुछ लोगों ने इसे “राष्ट्रवाद” से जोड़ा, वहीं कई कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने इसे रचनात्मक स्वतंत्रता पर हमला बताया।

प्रकाश राज का तीखा बयान – “फिल्मों पर बैन गलत परंपरा है”

दक्षिण भारतीय अभिनेता और सामाजिक मुद्दों पर बेबाक राय रखने वाले प्रकाश राज ने फिल्म पर लगे प्रतिबंध का विरोध किया है। उन्होंने कहा:

“मैं किसी भी फिल्म के बैन के पक्ष में नहीं हूं — चाहे वो राइट विंग की हो या प्रोपेगेंडा से जुड़ी हो। निर्णय दर्शकों पर छोड़ देना चाहिए। जब तक कोई फिल्म पोर्नोग्राफी या बाल शोषण को नहीं बढ़ावा देती, तब तक उस पर बैन लगाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है।”

प्रकाश राज का यह बयान भारत में बढ़ती सेंसरशिप और विचारों की स्वतंत्रता पर अंकुश की बहस को फिर से जीवित कर गया है।

दीपिका पादुकोण और शाहरुख खान के पुराने विवादों की याद दिलाई

प्रकाश राज ने आगे कहा कि आजकल कोई भी बात पर लोग “आहत” हो सकते हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा:

“जब पद्मावत रिलीज़ हो रही थी, तब किसी ने दीपिका की नाक काटने की धमकी दी थी। पठान फिल्म में शाहरुख और दीपिका के गाने ‘बेशरम रंग’ को लेकर बवाल मच गया क्योंकि दीपिका ने नारंगी रंग की ड्रेस पहनी थी। क्या हर चीज़ का विरोध जरूरी है?”

इससे पहले भी भारत में कई फिल्में धार्मिक भावनाओं या राजनीतिक विचारधाराओं के कारण विवादों में रही हैं।

सरकार पर आरोप – “डर का माहौल बना रही है”

प्रकाश राज ने सीधे तौर पर केंद्र सरकार को निशाने पर लेते हुए कहा कि:

“वर्तमान सरकार इस तरह के माहौल को बढ़ावा दे रही है। वे चाहते हैं कि समाज में इतना डर पैदा हो जाए कि अगली पीढ़ी वो ना लिखे जो वो सोचती है। पहले राज्य सेंसरशिप होती थी, अब केंद्र सरकार ने सेंसरशिप को नियंत्रण में ले लिया है।”

उनके अनुसार, सरकार की सोच यह है कि रचनात्मक स्वतंत्रता को इस हद तक डर में डुबो दिया जाए कि फिल्म निर्माता या लेखक आत्म-नियंत्रण करने लगें।

क्या ‘अबीर गुलाल’ सिर्फ एक फिल्म है या राजनीतिक संदेश?

हालांकि फिल्म अबीर गुलाल की पूरी कहानी सार्वजनिक नहीं की गई है, लेकिन इस पर पाकिस्तानी कलाकार फवाद खान की मौजूदगी के चलते राष्ट्रवाद और आतंकवाद जैसे मुद्दों को लेकर विवाद खड़ा हो गया है।

प्रकाश राज ने स्पष्ट कहा:

“हर पाकिस्तानी कलाकार को आतंकवादी के रूप में देखना गलत है। हमें सरकार की नीतियों से विरोध हो सकता है, लेकिन कलाकारों को निशाना बनाना उचित नहीं है। कला की कोई सीमा नहीं होती।”

क्या भारत में दर्शकों को खुद तय करने का हक नहीं है?

प्रकाश राज ने सवाल उठाया कि क्या भारतीय दर्शक इतने परिपक्व नहीं हैं कि वो खुद तय कर सकें कि उन्हें क्या देखना चाहिए और क्या नहीं?

“अगर फिल्म खराब है, तो लोग उसे नहीं देखेंगे। अगर वो एकतरफा प्रोपेगेंडा है, तो दर्शक उसे नकार देंगे। हमें लोगों की बुद्धिमत्ता पर विश्वास करना चाहिए, न कि उनके लिए निर्णय लेना।”

फिल्म इंडस्ट्री पर पड़ता असर

अगर इस तरह फिल्में बार-बार बैन होती रहीं, तो इसके गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं:

  • स्वतंत्र फिल्मकार और लेखक आत्म-सेंसरशिप में चले जाएंगे।

  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग और क्रॉस-बॉर्डर प्रोजेक्ट्स प्रभावित होंगे।

  • नई पीढ़ी रचनात्मक जोखिम लेने से कतराएगी

प्रकाश राज का मानना है कि इस तरह के माहौल से भारतीय सिनेमा की विविधता और बौद्धिक स्वतंत्रता पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है।

क्या यह सिर्फ सेंसरशिप है या राजनीतिक नियंत्रण?

भारत में पहले से ही सेंसर बोर्ड (CBFC) मौजूद है, जो किसी भी फिल्म को प्रमाणित करता है। फिर भी:

  • फिल्मों को सड़क पर विरोध के कारण रोका जाता है।

  • धार्मिक या राजनीतिक संगठनों द्वारा धमकियां दी जाती हैं।

  • सोशल मीडिया अभियानों के जरिए फिल्मों को बदनाम किया जाता है।

इससे यह सवाल उठता है कि क्या कानूनी प्रक्रिया से परे जाकर सार्वजनिक भावनाओं के नाम पर फिल्मों को सेंसर किया जा रहा है?

फिल्म अबीर गुलाल पर लगे बैन और प्रकाश राज की तीखी प्रतिक्रिया ने भारत में रचनात्मक स्वतंत्रता बनाम राजनीतिक सेंसरशिप की बहस को एक बार फिर से सामने लाया है। जब एक कलाकार यह कहता है कि “डर इतना फैला दिया गया है कि अगली पीढ़ी लिखने से डरे,” तो यह किसी एक फिल्म या एक कलाकार की बात नहीं रह जाती – यह लोकतंत्र की आत्मा पर चोट बन जाती है।

अब समय है कि भारत यह तय करे कि क्या वह संवाद और आलोचना की संस्कृति को अपनाना चाहता है या डर और प्रतिबंधों की राजनीति को।


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