फिल्म निर्माता करण जौहर, जो जल्द ही अपनी फिल्म धड़क 2 के साथ सिनेमाघरों में वापसी कर रहे हैं, उन्होंने हाल ही में अपने बचपन की उन यादों को साझा किया जो आज भी उनके दिल के बेहद करीब हैं। जय शेट्टी के साथ एक बातचीत में करण ने अपने बीते हुए दिनों को याद करते हुए बताया कि किस तरह वह हमेशा खुद को दूसरों से अलग महसूस करते थे।
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करण का कहना था कि बचपन में उनके साथ कोई खेलना नहीं चाहता था, क्योंकि वह दूसरे बच्चों की तरह नहीं थे। उनके चलने का तरीका, बात करने का लहजा और दौड़ने का अंदाज़ बाकियों से भिन्न था। इन बातों को लेकर उन्हें लगातार आलोचना और तिरस्कार झेलना पड़ा।
बचपन में अलग महसूस करते थे करण जौहर
करण ने कहा कि उन्होंने अपने बचपन में हमेशा एक अलग तरह की पहचान को महसूस किया। उन्हें यह समझ नहीं आता था कि वे जैसे हैं, वैसे क्यों हैं, लेकिन इतना जरूर समझ में आता था कि वे दूसरों से बिल्कुल अलग हैं। 80 के दशक के उस दौर में पहचान और स्वीकृति जैसे विषयों पर खुलकर बात नहीं होती थी, ऐसे में उनका संघर्ष और भी गहरा था।
उन्होंने कहा, “मैं अपने आसपास के लड़कों से काफी अलग था। मुझे समझ नहीं आता था कि मैं क्या हूं। मुझे लगता था कि मैं कुछ और हूं, और लोग मुझे लेकर असहज रहते थे।”
“मैं लड़कों जैसा नहीं था, मेरे साथ कोई नहीं खेलता था”
करण ने अपनी बातें जारी रखते हुए कहा कि वे अपने अपार्टमेंट में बाकी बच्चों के साथ खेलना चाहते थे, लेकिन उन्हें टीम में कभी नहीं चुना जाता था। उन्होंने कहा, “मैं बस उनके साथ खेलना चाहता था। मैं फुटबॉल टीम का हिस्सा बनना चाहता था, क्रिकेट खेलना चाहता था, लेकिन मुझे कोई नहीं चुनता था। क्योंकि मैं अच्छा खिलाड़ी नहीं था, स्पोर्टी नहीं था, और सबसे बड़ी बात, मैं उतना मर्द नहीं था जितना समाज उम्मीद करता था।”
“मेरे बोलने, चलने और भागने का तरीका अलग था”
करण जौहर ने बताया कि उनके शरीर की भाषा और बात करने का ढंग उन्हें बाकी लड़कों से अलग करता था। वे कहते हैं कि “मेरे चलने, बोलने और दौड़ने का तरीका अलग था। लोग अक्सर कहते थे कि मैं लड़कियों जैसा हूं। मुझे वे काम पसंद थे जो आमतौर पर लड़कियों से जोड़े जाते हैं।”
उनके अनुसार, बचपन में उन्हें बार-बार यह सुनना पड़ता था कि वे लड़कों जैसे नहीं हैं, जिससे उनका आत्मविश्वास कम हुआ। यह अनुभव उन्हें बार-बार यह सोचने पर मजबूर करता था कि क्या उनके साथ कुछ गलत है।
“सपनों की बात बाद में आई, पहले साथ चाहिए था”
करण ने कहा कि उनकी पहली ख्वाहिश कभी फिल्म बनाने की नहीं थी। वे बस दूसरों के बीच स्वीकार होना चाहते थे। “मैं सिर्फ यह चाहता था कि लोग मुझे अपने साथ रखें। मैं उनके साथ खेल सकूं, हंस सकूं। मेरे सपने बाद में आए। बचपन में तो सिर्फ इतना चाहिए था कि कोई मुझे अपना ले।”
यह बात आज के दौर में खास महत्व रखती है, जब बच्चों के बीच स्वीकृति की भावना मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती है।
आज के समाज में इस स्वीकार्यता की कितनी जरूरत है
करण जौहर की यह बात इस बात की मिसाल है कि आज भी समाज में ऐसे कई बच्चे हैं जो सिर्फ इसलिए अलग-थलग रह जाते हैं क्योंकि वे तथाकथित “मर्दानगी” के दायरे में नहीं आते। करण का यह आत्मस्वीकृति भरा अनुभव हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि समाज में विविधता को जगह देने की कितनी आवश्यकता है।
उनका यह अनुभव उन सभी बच्चों के लिए प्रेरणा बन सकता है जो खुद को अलग महसूस करते हैं, जिन्हें बार-बार नकारा जाता है, और जिन्हें यह कहा जाता है कि वे जैसे हैं, वैसे नहीं होने चाहिए।
करण जौहर की सफलता का सफर
जो करण जौहर कभी अपनी टीम में शामिल होने को तरसते थे, आज वे भारतीय सिनेमा के सबसे सफल निर्माता-निर्देशक हैं। कुछ कुछ होता है से लेकर ऐ दिल है मुश्किल तक, उन्होंने भारतीय फिल्म उद्योग को कई यादगार फिल्में दी हैं।
उनकी कहानियों में हमेशा इमोशन, अपनापन और आत्म-स्वीकृति जैसे विषय दिखाई देते हैं। यह शायद उनके व्यक्तिगत अनुभवों का ही नतीजा है कि वे अपने किरदारों में इतनी भावनात्मक गहराई दिखा पाते हैं।
करण जौहर की यह बातचीत केवल एक फिल्म निर्माता की आत्मकथा नहीं, बल्कि उन लाखों बच्चों और युवाओं की कहानी है जो आज भी खुद को अलग महसूस करते हैं। यह कहानी है उन भावनाओं की, जो अक्सर छिपी रह जाती हैं, लेकिन वक्त आने पर इंसान को मजबूत बना देती हैं।
उनकी कहानी यह संदेश देती है कि खुद को स्वीकारना और अपनी अलग पहचान को अपनाना ही सच्ची ताकत है। और अगर करण जौहर अपने उस बचपन से निकलकर आज यहां तक पहुंच सकते हैं, तो कोई भी बच्चा अपनी पहचान के साथ आगे बढ़ सकता है — बशर्ते समाज उसे समझे, और उसका साथ दे।
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